ईसाई धर्म
येसु द्वारा प्रवर्तित एकेश्वरवादी धर्म / From Wikipedia, the free encyclopedia
ईसाई धर्म, ईसाइयत या मसीही धर्म (अंग्रेज़ी- Christianity, क्रिश्चियानिटी, यूनानी : Χρῑστῐᾱνισμός, क्रिस्तियानिस्मोस् से व्युत्पन्न; इब्रानी: נצרות; अरामी: ܡܫܝܚܝܘܬܐ) नासरत के यीशु के जीवन और शिक्षाओं पर आधारित एक इब्राहीमी एकेश्वरवादी धर्म है । यह दुनिया का सबसे बड़ा, सर्वाधिक जनसंख्या वाला सबसे व्यापक धर्म है, जिसके लगभग 2.4 अरब अनुयायी वैश्विक जनसंख्या का एक तिहाई प्रतिनिधित्व करते हैं ।[1][2] अनुमान के अनुसार, इसके अनुयायी, जिन्हें ईसाई या मसीही कहा जाता है, 157 देशों और क्षेत्रों में आबादी के बहुसंख्यक हैं[3], और यह मानते हैं कि यीशु ईश्वर के पुत्र हैं , जिनकी मसीहा के रूप में भविष्यवाणी हिब्रू बाइबिल ( ईसाई धर्म में जिसे पुराना नियम कहा जाता है) में की गई थी और बाइबिल के नए नियम में इसका वर्णन किया गया।[4] यह विश्व के प्राचीन धर्मों में से एक है जो प्राचीन यहूदी परंपरा से निकला है। ईसाई परंपरा के अनुसार इसकी शुरुआत प्रथम सदी ई. में फिलिस्तीन में हुई है और आज इसके मुख्ययतः तीन संप्रदाय हैं, कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट और पूर्वी रूढ़िवादी चर्च[5] ईसाइयों के धर्मस्थल को गिरिजाघर कहते हैं।
ईसाई धर्म | |
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Χρῑστῐᾱνισμός | |
प्रकार | सर्वभौमिक धर्म |
वर्गीकरण | इब्राहीमी धर्म |
धर्मग्रंथ | बाइबिल |
धर्ममीमांसा | एकेश्वरवाद |
क्षेत्र | विश्वव्यापी |
भाषा(एँ) | आरमाईक, हिब्रू, यूनानी भाषा और लैटिन |
धर्म-राज्यक्षेत्र | ईसाई-जगत् (क्रिस्टेंडोम) |
संस्थापक | यीशु मसीह, पवित्र परम्परा के अनुसार |
उत्पत्ति | प्रथम शताब्दि एडी जुडिया, रोमन साम्राज्य |
से पृथक्कृत | यहूदी धर्म |
सदस्यों की संख्या | 2.4 अरब (जिन्हें ईसाई के रूप में जाना जाता है) |
ईसाई धर्म अपनी पश्चिमी और पूर्वी शाखाओं में सांस्कृतिक रूप से विविध है , और उद्धार की औचित्य और प्रकृति, कलिसीयाशास्त्र, पुरोहिताभिषेक और मसीहशास्त्र के संबंध में सैद्धांतिक रूप से विविध है । विभिन्न ईसाई संप्रदायों के धर्मसार आम तौर पर यीशु को ईश्वर के पुत्र के रूप में मानते हैं - लोगोस् का अवतरित रूप - जिन्होंने सेवकाई की , पीड़ा उठाया और क्रूस पर मृत्यु को प्राप्त हो गए , लेकिन मानव जाति के उद्धार के लिए मृतक से पुनः जी उठे ; जिसे कहा जाता है सुसमाचार या गॉस्पेल , जिसका अर्थ है "अच्छी खबर"। यीशु के जीवन और शिक्षाओं का वर्णन मत्ती , मरकुस , लुका और यहुन्ना के चार विहित सुसमाचारों में किया गया है , जिसमें पुराने नियम को सुसमाचार की सम्मानित पृष्ठभूमि के रूप में दर्शाया गया है।
ईसाई धर्म यीशु के जन्म के बाद पहली शताब्दी में यहूदिया के रोमन प्रांत में हेलेनीयाई प्रभाव वाले एक यहूदी संप्रदाय के रूप में शुरू हुआ । बड़ी मात्रा में उत्पीड़न के बावजूद, यीशु के शिष्यों ने पूर्वी भूमध्यसागरीय क्षेत्र में अपनी अस्था फैलायी ।अन्यजातियों और गैर-यहुदीयों को शामिल करने से ईसाई धर्म धीरे-धीरे यहूदी परम्परा (दूसरी शताब्दी) से अलग हो गया। सम्राट कॉन्सटेंटाइन महान ने मिलान के राजादेश द्वारा रोमन साम्राज्य में ईसाई धर्म को अपराधमुक्त कर दिया (313), बाद में निकिया परिषद (325) बुलाई गई जहां प्रारंभिक ईसाई धर्म को रोमन साम्राज्य के राज्य चर्च (380) में समेकित किया गया। पूर्व की कलीसिया और प्राच्य रूढ़ीवाद दोनों मसीहशास्त्र (5वीं शताब्दी) में मतभेदों के कारण अलग हो गए[6], जबकि पूर्वी रूढ़ीवादि कलीसिया और कैथोलिक कलीसिया पूर्व-पश्चिम विच्छेद(1054) में अलग हो गए । धर्मसुधार युग (16वीं शताब्दी) में प्रोटेस्टेंटवाद कैथोलिक चर्च से कई संप्रदायों में विभाजित हो गया । खोज के युग का अनुसरण (15वीं-17वीं शताब्दी), धर्मप्रचार कार्य , व्यापक व्यापार[7] और उपनिवेशवाद के माध्यम से ईसाई धर्म का दुनिया भर में विस्तार हुआ । ईसाई धर्म ने पाश्चात्य सभ्यता के विकास में , विशेष रूप से यूरोप में प्राचीन काल और मध्य युग से एक प्रमुख भूमिका निभाई।[8][9][10][11]
ईसाई धर्म की छह प्रमुख शाखाएँ हैं: रोमन कैथोलिक पंथ (1.3 अरब लोग), प्रोटेस्टेंटवाद (80 करोड़), पूर्वी रूढ़िवादी (22 करोड़), प्राच्य रूढ़िवादी (6 करोड़)[12][13], पुनर्स्थापनवाद (3.5 करोड़)[14] , और पूर्व की कलीसिया (600 हजार)। एकता ( सार्वभौमिक अंतरकलिसीयाई एकतावाद ) के प्रयासों के बावजूद छोटे चर्च समुदायों की संख्या हजारों में है[15]।पश्चिम में , ईसाई धर्म पालन में गिरावट के बावजूद भी यह वहाँ का प्रमुख धर्म बना हुआ है, जिसकी लगभग 70% आबादी ईसाई के रूप में स्वयं की पहचान रखती है।[16][17] दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले महाद्वीप अफ्रीका और एशिया में ईसाई धर्म बढ़ रहा है।[16] ईसाइयों को दुनिया के कई क्षेत्रों में, विशेष रूप से मध्य पूर्व , उत्तरी अफ्रीका , पूर्वी एशिया और दक्षिण एशिया व भारत में बहुत उत्पीड़ित जाता है।[18][19]
इस पन्थ की मान्यता यह है कि परमेश्वर आत्मा है और आत्मा का हड्डी और मांस नहीं होता है अर्थात् जिसे हम देख नही सकते उसकी प्रतिमा कैसे बना सकते हैं। उस सर्वशक्तिमान परमेश्वर को कभी किसी ने भी शारीरिक आंखों से नही देखा। पर परमेश्वर ने मानवजाति पर अपनी प्रेम इस रीति प्रकट किया कि उसने मनुष्य रूप धारण किया। वह पराकर्मी परमेश्वर जिसने काल, समय और मनुष्य को बनाया। वह खुद अपने काल, समय, में सिमटकर आया। ताकि मानवजाति उसके द्वारा अपने अपने पापों से छुटकारा पा सके।
चौथी सदी तक यह पन्थ किसी क्रांति की तरह फैला, किंतु इसके बाद ईसाई पन्थ में अत्यधिक ||कर्मकांडों|| की प्रधानता तथा पन्थ सत्ता ने दुनिया को अंधकार युग में धकेल दिया था। फलस्वरूप पुनर्जागरण के बाद से इसमें रीति-रिवाजों के बजाय आत्मिक परिवर्तन पर अधिक जोर दिया जाता है।