जागीर
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एक जागीर (फ़ारसी: جاگیر)[1] भारतीय उपमहाद्वीप में जागीरदार (ज़मींदार) प्रणाली की नींव पर एक प्रकार का सामंती भूमि अनुदान था।[2][3] इसका विकास १३वीं सदी की शुरुआत में भारतीय उपमहाद्वीप के इस्लामी शासन काल के दौरान हुआ, जिसमें किसी संपत्ति पर शासन करने और कर एकत्र करने की शक्तियां राज्य के एक नियुक्त व्यक्ति को दी गई थीं।[2] किरायेदारों को जागीरदार की दासता में माना जाता था।[4] जागीर के दो रूप थे, एक सशर्त और दूसरा बिना शर्त। सशर्त जागीर के लिए शासक परिवार को सेना बनाए रखने और पूछे जाने पर राज्य को अपनी सेवा प्रदान करने की आवश्यकता होती थी।इस तरह शासक को जागीरदार या सामंत द्वारा युद्ध में अपने सैनिकों सहित जो सेवाऐ दी जाती थी वह चाकरी कहलाती थी और सामंत, शासक के चाकर। शांति काल में इन चाकरो (जागीरदार/सामंत)को राजदरबार में सेवा देनी होती थी जिसमें शासक का चंवर ढुलाना, शासक की तलवार पकङे रहना, शासक के पीछे हाथी के हौदे में खवास के रूप में बैठना। अंग्रेज़ी राज मे युद्ध बंद हो गये तो चाकरी की एवज में सैनिको की संख्या के बदले नकद राशि कर के रूप में वसूली जाने लगी। [2][3] भूमि अनुदान को इक्ता कहा जाता था, आमतौर पर धारक के जीवनकाल के लिए, और जागीरदार की मृत्यु पर भूमि राज्य को वापस कर दी जाती थी।[2][5]
जागीरदार व्यवस्था दिल्ली सल्तनत द्वारा शुरू की गई थी,[2] और मुगल साम्राज्य के दौरान भी जारी रही, [6] लेकिन एक अंतर के साथ। मुगल काल में जागीरदार करवसूली करते थे, जिससे उसका वेतन और शेष मुगल खजाने को जाता था, जबकि प्रशासन और सैन्य अधिकार एक अलग मुगल नियुक्त व्यक्ति को दिया जाता था।[7] मुगल साम्राज्य के पतन के बाद जागीर की व्यवस्था मराठों, राजपूत, चारण [8] ,क्षत्रिय,[9] राजपुरोहित, जाट और सिख जाट राज्यों द्वारा बरकरार रखी गई, और बाद में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा एक रूप में बरकरार रखी गई।[2][10][11]